मैंने अपनी देह की आवाजें
एक-एक कर
मौन की थाली में परोस दीं —
अब जो कुछ बजता है भीतर,
वो तेरी धड़कनों का संगीत लगता है।
मैंने अपने विचारों के जंगल
धू-धू कर जला दिए —
अब जो हरियाली उगती है
उस पर तेरा नाम अंकित है।
कभी मैं साँस लेता था
तो लगता था — मैं जीवित हूँ।
अब साँसें चलती हैं
पर उनके भीतर
केवल तू बहता है,
बिना नाम, बिना रूप।
मैंने अपनी इच्छाओं के पंछी
खुले आसमान को दे दिए —
अब जो उड़ान शेष है,
वो मेरी नहीं, तेरी लगती है।
मैं अब ‘मैं’ नहीं हूँ।
ना पहचान,
ना स्वर,
ना कोई किनारा।
और जो कुछ शेष है —
वो एक छाया है
जो हर दिशा से तेरी ओर गिरती है।
जो कुछ बचा है,
वो शायद तू ही है —
एक मौन नदी
जो अब मेरे भीतर से नहीं बहती,
बल्कि मैं ही उसका तट बन गया हूँ।
इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड