मैंने तुझे ढूँढा—
मंदिर की आरती में,
मस्जिद की अज़ान में,
गुरद्वारे की अरदास में,
सत्संग के उन वचनों में
जिन्हें सुनते-सुनते मेरी रूह पथरा गई।
पर हर जगह—
एक ही रोना था
कोई कहता “मेरा रास्ता सही,”
कोई चिल्लाता “मेरा भगवान बड़ा।”
हर दर पर
“मैं बड़ा” की लड़ाई थी,
और तू…
इन शोरों के पीछे कहाँ खामोशी ओढ़े बैठा रहा—
पता नहीं चला।
मैं हार गया,
सोचा तू कुछ है ही नहीं
सिवाय बस एक पुराने सपने के—
जिसे जागने के बाद
कोई याद नहीं रखता।
जब लौटकर अपने घर आया—
सोचा, अब शायद
तू मुझे मेरी चुप्पी में ही मिलेगा।
मैं हार कर घर बैठ गया
किसी पंख कटे पंछी की तरह,
चुप हो गया।
पर वहाँ भी
द्वार पर भूख ने दस्तक दी,
बच्चों ने किताबें माँगी,
माँ ने दवाई,
बीवी ने चूल्हे का ईंधन,
और कपड़ों की सिलवटों में
मेरी हर साधना गुम हो गई।
अब तू ही बता—
तेरी भक्ति करूँ तो कैसे?
जहाँ हर तरफ़ “मैं” और “मेरा” बिखरा है,
वहाँ “तेरा” तूँ कहाँ से उगाऊँ?
ये जीवन
जंगल है या जाल—
समझ नहीं आता।
तू कोई राह तो दिखा—
अब शब्द नहीं चाहिए,
कोई रास्ता… बस एक ख़ामोश इशारा।
ताकि, तेरा हो जाऊँ, इस भीड़ में भी… बेआवाज़।
-इक़बाल सिंह “राशा“
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड