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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayra By Reena Kumari PrajapatDastan-E-Shayra By Reena Kumari Prajapat

कविता की खुँटी

                    

वो भी क्या दिन थे - अमित सोलंकी

वो भी क्या दिन थे,
जब 'सरस्वती शिशु मंदिर' जाते थे
और
एक साथ एक लय में
सब बच्चे प्रार्थना करते थे,
प्रार्थना के बाद
बच्चे दीदी-आचार्यजी के चरण स्पर्श करते थे,
फिर दीदी-आचार्यजी अपने-अपने कक्षा-कक्ष
में बच्चों से पहले ही जाकर बैठ जाते थे,
फिर एकैक पंक्ति से क्रमश: बच्चे एकैक करके
'प्रवेश' पूछकर कक्षा में प्रवेश करते थे,
उपस्थिति देते समय सब बच्चे क्रमश:
'ओम भगवान' बोलते थे,
कभी विलम्ब हो जाते तो प्रसाद मिलती थी और
कभी एक के ग़लती न स्वीकारने पर
सबको 'प्रसाद' बँटती थी,
सब बच्चे कक्षा में बड़े ध्यान से ज्ञान ग्रहण करते थे,
किस दिन कौन-सी कक्षा के दीदी-आचार्यजी
कौन-से विषय का टेस्ट लेंगे;
ये प्रधानाचार्यजी तय करते थे
और टेस्ट के समय प्रधानाचार्यजी सब कक्षा में फेरा लगाकर
कड़ी निगरानी रखते थे,
मध्यावकाश में सब साथ मिलकर भोजनमंत्र करके भोजन करते थे,
फिर
दोस्तों के साथ पकड़म-पाटी, बर्फ पानी,
आँख-मिचौली, सतुलिया,
चैन तो कभी कपड़े की गेंद बनाकर
'आलू गधामार चालू' खेलते थे ,
फिर घण्टी बजते ही पसीना पौछ फिर से कक्षा में बैठ जाते थे,
ग़लती न होने पर भी एक-दूसरे को डांट पिटवाते थे,
दोस्तों से गाल-चींटी, हाथ-चींटी लेते थे,
ग़लती होने पर दीदी-आचार्यजी गहन खोजबीन करके
ग़लती करने वाले को पकड़ लेते थे
और दण्ड देते थे,
कभी घर पर शिकायत कर देते थे तो
कभी घरवाले आकर शिकायत करके पिटवा देते थे
कभी कक्षा प्रतिनिधि बनकर एक-दूसरे पर रौब झाड़ते थे,
और ज़रा-सा हिलने-डूलने पर भी दोस्त
एक-दूसरे का नाम बोर्ड पर नाम लिखकर पिटवाते थे,
दोस्तों का रूठना मनाना लगा रहता था,
सब अपनी-अपनी हर चीज़ पर नाम लिखकर सम्भालकर रखते थे,
हर प्रतियोगिता में भाग लेना ज़रूरी होता था,
सभी हिल-मिलकर रहते थे,
एक-दूसरे की प्रतिभा निखारते थे,
सभी दीदी-आचार्यजी हाव-भाव के साथ पढ़ाते थे,
कभी पाठ-पाठ मे हँसते-हँसाते,रोते-रूलाते थे,
कभी बोर्ड पर लिखकर,
तो कभी बोल-बोलकर रफ कॉपी में लिखवाते थे,
छुट्टी होने के बाद(जैसे जेल से छुटे हो)
हो हो हो.. चिल्लाकर कक्षा से भागते थे,
पर प्रधानाचार्यजी के निकलते ही सब वापस कक्षा में घुसकर
चुपचाप पुस्तक निकालकर बैठ जाते थे,
फिर पंक्ति बनाकर विसर्जन मंत्र एक लय में गाते थे,
'मंदिर' के बाहर निकलते ही कभी शैतानी सूझती तो
रास्ते में पड़े पत्थर/थैली/बोतल को
दोस्तों के साथ पैर से मार-मारकर घर तक ले जाते थे
और कभी प्र. के देखते ही चुपचाप घर की ओर जाते थे,
फिर घर पर पहुँचते ही घरवाले क्या-क्या किया ये ख़बर लेते थे,
सचमूच
वो भी क्या दिन थे,
बड़े ही सुहाने दिन थे,
कुछ भी कहो बड़े कड़े,
पर मस्त दिन थे,
अनुशासित दिन थे l

----अमित सोलंकी




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