क्या कभी ये सोचा तुमने ?
मानवता कितनी बाकी है ,
यूं तो संसृति का हर प्राणी ,
निज जीवन का अधिकारी है,
सबकी माता क्या नहीं धरती ,
या अंबर तुमने ताना हैं ,
सूरज रचा है क्या ये तुमने ,
या सागर को दी गहरायी ,
क्या कभी ये सोचा तुमने ?
सबकी अपनी दिनचर्या थी
सबको मोह निज प्राणों का है
सबको प्रकृति ने यथायोग्य ,
अपने कलेवर में धारा है ,
फिर कैसी ये बिखरी पंक्ति ,
लुप्त प्राय का खेल ये क्या है ,
क्या कभी सोचा तुमने ?
छोड़ो चलो फिर इन बातों को ,
जो तुम कहते वही सुनाओ
तुमने माना मानव केन्द्रित
उसके भी तुम दशा बताओ
एक बना राजा फिरता है
एक भीख लेते घूमे है ,
एक साधनो पे झूमे है ,
एक झूठे पत्तल चूमे है ,
क्या कभी सोचा तुमने ?
कहते हो तुम उद्यम का श्रम ,
या किस्मत का खेल बताते ,
चलो बताओ जरा बताओ ,
क्या कभी उनको अधिकार दिया
तेरी ही माना दुर्बल वो रहे
मानसिक या शारीरिक कुछ भी
चल बता क्या ये थी तेरी मानवता
क्या कभी सोचा तुमने ?
महल बनाए वो जो तेरे
बाहर फूटपाथ में सो रहे
भोजन छप्पन जो तू खाये ,
उपजाए जो भूखे सो रहे ,
कितने नरसंहार ना भूले
आँशु पीते ख़ुशी ख़ुशी वो ,
मानवता की तेरी परिधि क्या
बता जरा मुझको भी अब तू
मानवता की परिधि तेरी क्या
बता जरा मुझको भी अब तू
क्या कभी सोचा तुमने ?
तेजप्रकाश पाण्डेय ✍️