मैं तेरे भीतर का साया हूँ—
जो तेरे साथ साँसों में बसा था,
तेरे विचारों की पहली रौशनी,
तेरे शब्दों की पहली अनुभूति था।
अब तू मुझसे दूर हो गया है—
धूप के पीछे भागता हुआ
अपनी ही छाया को खो बैठा है।
तू मंदिरों में ढूँढ़ता है मुझे,
पर मैं तो तेरे अंतर्मन की घंटियों में हूँ।
तू हर शोर में शांति चाहता है,
पर तूने खुद की चुप्पी से मुँह मोड़ लिया।
तू रोया—मैं भी भीगा,
तू टूटा—मैं भी चटक गया।
पर तूने मुझे देखा नहीं,
सुना नहीं, छुआ नहीं।
कभी जब कोई खामोशी
तेरे हृदय में दस्तक दे,
तो जान लेना—
वो मैं हूँ…
तेरे भीतर का वो प्रीतम
जिसे तू जन्मों से प्रेम करता आया है।
मैं अब भी तुम्हें सुनता हूँ—
हर उस वक़्त
जब तेरे भीतर की साँस काँपती है
और तू ऊपर नहीं,
भीतर झाँकने लगता है।
मैंने तुझे छोड़ा नहीं—
तू ही मुझे भीड़ में भूल बैठा।
तेरे हाथों में कभी इबादत की थाली थी,
अब उनमें समय की जंजीरें हैं।
तेरे शब्दों में कभी भक्ति का संगीत था,
अब वहाँ तर्कों की चुप्पी है।
लेकिन मैं आज भी वहीं हूँ—
तेरे हृदय की परिक्रमा में।
तू लौट आ—
मैं वही प्रीतम हूँ
जिसने तुझे जन्मों-जन्मों तक चाहा,
तू मुझे जब प्रेम में पुकारेगा,
मैं तुम्हारे शब्दों में उतर जाऊँगा।
तेरी कलम में फिर से विश्वास बनूँगा,
तेरे आँसुओं में फिर से प्रार्थना बनूँगा,
तेरे मौन में फिर से मैं
“प्रेम” कहलाऊँगा।
-इक़बाल सिंह “राशा“
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड