ये किया वो समझा, मगर हश्र–ए–हस्ती वही हुआ..
आशियां तो बना , मगर हश्र–ए–बस्ती वही हुआ..।
तुफां का मिज़ाज़ तो, फिर वही मिटाने वाला ही था..
मगर नाखुदा ने जो चाहा, हश्र–ए–कश्ती वही हुआ..।
कि बहुत पहरेदारियाँ रखीं, सांसों के निगहबानी में..
पंछी जो उड़ा तो उड़ गया, हश्र–ए–ग़श्ती वही हुआ..।
ज़माने भर की पाबंदियां तो, हमने उठाए रखीं थी..
बहुत बाद में जाना जब, हश्र–ए–मस्ती वही हुआ..।
कारवां लुटा कर पहुंचे, मंज़िल पर वो किसी तरह..
कुछ भी न बदला, हश्र–ए–मौकापरस्ती वही हुआ..।
पवन कुमार "क्षितिज"