एक पत्ता उड़ गया है हवा के साथ
पेड़ तन्हा रह गया है गुमसुम उदास
सिर्फ बंदगी से मिल जाएगी मंजिल
कर गया बेकार सबको यह रिवाज
हर सांस गुजरती है बस रुह से मेरी
कुछ पलों का रह गया हैं ये हिसाब
जितनी पीते हैं मगर बढ़ती जाती है
पल रही है जिस्म में कैसी ये प्यास
वक्त की है पुकार बदलो नजरिया
मन की खिड़की खोल आए उजास
सदियों से बहती नदी बैचेन हैं बहुत
कहांपे गुम तट इसे जिसकी तलाश
कितना बदले हैं मौसम के यहां तेवर
खिलते नहीं जल्द अब मन के पलास
मुस्कान हो गई है "दास"अजनबी सी
अब वेदना में गुम है जुबां की मिठास