एक रोज फिर मिलेंगे हम,
जहाँ ढलती हुई शाम होगी,
जहाँ छलकती जाम होगी,
जहाँ सकूँ, एहतराम होगी।
एक रोज फिर मिलेंगे हम,
जहाँ यादों की बरसातें होंगी
जहाँ अनकही सब बातें होंगी,
जहाँ यारों से मुलाकातें होंगी।
एक रोज फिर मिलेंगे हम,
जीवन की आपाधापी से दूर,
भुला के गम खुशियों से पूर,
मिलते थे पहले जैसे बदस्तूर।
एक रोज फिर मिलेंगे हम,
जहाँ बिता बचपन उस गाँव में,
जहाँ बैठते थे दरख़्त की छाँव में,
जहाँ लगता जमघट उस ठाँव में।
एक रोज फिर मिलेंगे हम,
जीवन के आखिरी ढलान पर,
साँसों से लड़ते दालान पर,
या फिर अंत में मसान पर।
एक रोज फिर मिलेंगे हम।
🖊️सुभाष कुमार यादव