छत की मुंडेर पर बैठा चाँद भी पढ़ गया उसे,
सुनसान रातों की स्याही में,
तेरी रौशनी की कमी घुली थी कहीं...
एक ख़त्म लिखा है तेरे नाम—
वो शब्द नहीं थे,
बस सूने भजन थे,
जो प्रार्थना की लौ में भीग गए थे।
तेरे जाने के बाद
मंत्रों ने भी मुझसे मुँह मोड़ लिया,
जप की माला तुझ तक जाती रही बार-बार,
और मैं...
हर श्वास में तुझे पुकारता रहा,
जैसे शब्द नहीं—अंतर बोल रहा हो।
एक ख़त्म लिखा है तेरे नाम—
जिसमें कोई तिथि नहीं,
बस वह पल था
जब तूने मेरी आत्मा से दृष्टि हटाई थी।
हर अक्षर में मैंने तुझे टटोला,
तेरे मौन के पीछे छिपा आदेश ढूँढा,
मगर तू चुप रहा,
जैसे ब्रह्मांड भी तेरे नाम पर साँस थामे है।
एक ख़त्म लिखा है तेरे नाम—
जो मैंने भेजा नहीं कभी,
क्योंकि पूजा की दिशा भटक गई थी,
और मन...
वह तेरे चरणों में ही अटका रह गया।
तेरे नाम की रेखाएँ
अब भी मेरे आत्म-हस्ताक्षर पर अंकित हैं,
मानो जन्म-जन्मांतर की वाचा
जिसे केवल भक्ति की नीरवता समझ पाती है।
एक ख़त्म लिखा है तेरे नाम—
हर साँस में, हर ध्यान में,
हर उस क्षण में जहाँ तू नहीं था,
पर फिर भी था...
और अब,
जब बरसों बाद किसी पुरानी वाणी में
तेरे नाम की गूँज मिली—
तो वह ख़त फिर खुल गया...
एक ख़त्म लिखा है तेरे नाम—
पर सवाल अब भी वही है:
"क्या तूने कभी सुनी मेरी पुकार?"
या मैं ही अकेला
हर भाव में तुझसे मिलने चला आया?
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड