ये चेहरे जो कल तक चमकते रहे,
अंधेरों में धुँधली तस्वीरों-से ढलते गए।
जो सपने थे आँखों में फूलों की तरह खिले,
वो आँसूओ में किरणों-से घुलकर फिसलते गए।
ये दुनिया, ये रिश्ते, ये ताज़ो-नशा,
बस वक़्त की सितारों-भरी राख पे बैठे परिंदे,
फड़फड़ाए पंख, तो आकाश ही आकाश जाना है…
जो आया यहाँ धूप-छाँव का खेल बनकर,
उसे रेत की लकीरों-सा मिट जाना है…
जिन रूहों के संग फूल से खिलते थे हम,
वही मुरझाकर अजनबी हो गई।
जो आवाज़ें कल तक गीतों की माला थीं,
हवा में घुली तो टूटे सुरों सी पराई हो गई।
ये आँगन, ये चौखट, ये रिश्तों की डोरी,
कल किसी और की थी, कल किसी और की होंगी,
बस मुखौटे सबने बदलते जाना है…
जो आया यहाँ एक आवाज़ बनकर,
उसे ख़ामोशी के सागर में डूब जाना है…
कोई धूप बनकर यहाँ आ गया,
कोई छाँव बनकर रेत में मिटा जा रहा।
जो आँखों में कल तक चाँदनी-सा चमकता रहा,
वही सपना तारा टूटने सा टूटा जा रहा।
शाम ढलते ही अंधेरों के हाथों में किसका सवेरा?
सुबह होते ही उजाले भी तो परछाईं से मेहमान…
जो बादल था कल तक, उसे दर्द बन बरस जाना है…
जो आया यहाँ एक बूँद बनकर,
उसे समंदर की लहरों में समा जाना है…
अब सपनों को बिखरने दो आँचल की हवा में,
ये तारे हैं, न रुकेंगे बंद मुट्ठी की गठरी में…
जो जीना है उस आग में जलकर जी ले,
रात की चमक तो सुबह की राख है,
ये दुनिया बस साँसो की आस है,
हर साँस नया नाम, हर साँस पुराना निशाँ…
जहाँ से चला था, बस वहीं तक जाना है,
जो आया यहाँ एक छाया बनकर,
उसे अस्तित्व के सागर में विलीन हो जाना है…
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड