बनते बिगड़ते रिश्तों की अजीब कहानी है।
कहीं बुढ़ापे में भी आत्मा तृप्त हो रही तो
कहीं एकांकीपन में हीं कट रही ज़वानी है
कहीं सुखा हीं सुखा तो कहीं बह रहा पानी है।
ये दौलतें शोहरतें ये चाहतें ये अपनापन
वक्त के साथ घट जाता है।
अंत समय में कुछ नहीं भाता
ये शरीर भी नष्ट हो जाता है।
गर्दिशों के साये में सबकुछ कुम्हला जाता है।
डाली पर खिला फूल भी मुरझा जाता है।
एक एक कर सब साथ छोड़ जातें अपना कोई नज़र नहीं आता है।
कोई अपना नज़र नहीं आता है...