"मैं ठिकाना ढूंढता हूं, बस ठिकाना ढूंढता हूं,
कभी हिमालय की बर्फीली चोटी में तो,
कभी थार की धधकती धरती में,
मैं यूं ही फिरता हूं,
मैं ठिकाना ढूंढता हूं!
कभी धूप की झुलसती गर्मी, कभी पानी की बौछारें,
तो कभी शीत की ठंडी लहरों से जूझता हूं,
मैं ठिकाना ढूंढता हूं, बस ठिकाना ढूंढता हूं!
कभी इस डाल में तो कभी उस डाल में,
मैं कानन के हर रुक्ष में अपना आशियाना बुनता हूं,
मैं ठिकाना ढूंढता हूं,
कभी इस झाड़ में तो कभी उस झाड़ में,
मैं आखेट के भय से वन के हर कोने में छिपता हूं,
मैं ठिकाना ढूंढता हूं, बस ठिकाना ढूंढता हूं!
अथक परिश्रम करता हूं मैं,पराजय से मैं डरता हूं,
दिन भर उड़ानें भरता हूं मैं,
तब जाकर चंद दाना चुगता हूं,
मैं ठिकाना ढूंढता हूं,
ये ज़मीं नहीं है घर मेरा, मैं आसमान का बासिंदा हूं
छोड़कर ये ज़मीं भर–भर के उड़ानें,
मैं आसमान छूता हूं,
हां मैं एक परिंदा हूं, बस एक आज़ाद परिंदा,
तभी तो मैं ठिकाना ढूंढता हूं, बस ठिकाना ढूंढता हूं।।"
-----कमलकांत घिरी'