धर्म क्या है?
मंदिर की घंटी? मस्जिद की अज़ान?
या वो खून के छींटे,
जो आस्था के नाम पर
गली-गली, नगर-नगर बिखरे हैं?
धर्म क्या है?
वो भगवा या हरा जो
तुम्हारी आँखों से विवेक छीन लेता है?
या वो पुराण,
जिन्हें पढ़कर भी तुम
अब तक इंसान बनना नहीं सीख पाए?
कब समझोगे धर्म का अर्थ?
जब हर गली में महाभारत होगा?
जब हर बालक अभिमन्यु बनेगा —
और हर माँ, गांधारी की तरह
अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेगी?
कब बंद होगा ये
“मैं सही — तू गलत” का युग?
कब कोई पूछेगा —
“क्या मैं भी अधर्म में भागी हूँ?”
या तब तक तुम प्रतीक्षा करोगे
किसी नए कृष्ण की —
जो फिर से अपना सारथ्य दे,
और गीता का नया पाठ पढ़ाए?
तुम कृष्ण को खोजते हो —
पर तुम्हारे भीतर अर्जुन अभी भी
अपने ही मोह में गिरा पड़ा है।
उसे न युद्ध से डर है
न अधर्म से क्षोभ —
उसे डर है बस सच से टकराने का।
कब जागेगा विवेक?
कब धर्म का अर्थ
करुणा, समता और सत्य होगा —
ना कि भीड़, नफ़रत और संप्रदाय?
कब समझोगे कि धर्म वो नहीं
जो तुम्हें लड़ना सिखाए —
धर्म वो है
जो तुम्हें अपने भीतर
शांति से जीतना सिखाए।
पर शायद तब तक देर हो चुकी होगी —
क्योंकि जब तक कृष्ण आएगा,
तुम एक-दूसरे को गालियाँ दे चुके होगे,
मर चुके होगे —
और फिर दोष दोगे…
कृष्ण को, कि वो समय पर क्यों नहीं आया!