मेरी ज़िन्दगी से जद्दोजहद इस कदर रही
जैसे बारिश में पतंगें, उड़ाता है कोई
हर आहट पर चौंक-चौंक जाती हूँ मैं
जाने क्यूंँ बार-बार लगे बुलाता है कोई
उसी रहगुज़र पर दिल खींचा जाता है
जैसे अब भी उसी मकान में रहता है कोई
शेष नहीं अब तो सब खो चुकी हूँ मैं
फिर क्यूंँ अब भी मुझको रुलाता है कोई
यूँ तो आसमान छूना चाहती हूँ मगर
क्या बताऊंँ "श्रेयसी" मुझको डराता है कोई