बंधे हुए तार
डॉ एच सी विपिन कुमार जैन "विख्यात"
हाथों में जकड़ा, नज़रों में छाया,
मोबाइल ने ऐसा बंधन बनाया।
उठते-बैठते, सोते-जागते,
हम तो बस इसके ही होकर रह गए।
स्क्रीन पर टिकी हैं आँखें हरदम,
बाहर की दुनिया का भूला है गम।
अपनों से भी अब दूरी बनी है,
वर्चुअल रिश्तों में ही ज़िंदगी सनी है।
नोटिफिकेशन की हर धुन पर भागे,
जैसे कोई अदृश्य डोरी हमें खींचे आगे।
अपनी मर्ज़ी से साँस भी कहाँ लेते,
हर पल इसकी गुलामी में जीते।
ये उंगलियाँ नाचती रहती हैं इस पर,
जैसे कोई जादू हो, न चले कुछ और पर।
ज्ञान का सागर है, माना हमने,
पर खुद की सोच का भी हरण है इसने।
आज़ाद थे कभी, अपनी ही धुन के,
अब तो ये यंत्र ही है जीवन के धुन के।
कब टूटेंगे ये अदृश्य से तार,
कब लौटेंगे हम अपने संसार?