कभी वो लड़की हँसती थी—
उसकी हँसी का रंग,
गली के हर पेड़ की पत्तियों पर चढ़ जाता,
उसकी आँखें,
एक छोटे से गाँव की नदी की तरह,
निर्मल बहती थीं।
फिर समय ने करवट ली।
उसने सोचा—
“प्यार” एक छत होगी,
जहाँ थकान उतारकर
वो चैन से जी सकेगी।
पर छत बनी
लोहे की सलाखों से।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बुझने लगा।
न मुस्कान रही,
न आँखों में बहती नदी।
बस सूखी दरारें—
जहाँ कभी सपने उगते थे।
वो रोज़ आईने के सामने खड़ी होती,
आईना पूछता—
“तुम्हारे चेहरे का रंग किसने चुराया?”
वो जवाब नहीं दे पाती,
सिर्फ अपने भीतर के खालीपन को देखती।
प्यार—जो कभी साँस था—
अब हवा की तरह गायब हो गया।
रह गई सिर्फ घुटन—
मानो कोई अदृश्य हाथ
उसका गला दबोचे बैठा हो।
गुस्सा उठता,
पर किसी पर बरसता नहीं—
भीतर ही भीतर
वो जलती रहती।
घृणा का जहर
धीरे-धीरे उसकी नसों में फैलता,
और उसका चेहरा
हर दिन और बुझता जाता।
लेकिन एक रात—
जब खामोशी ने भी उसकी पीठ मोड़ ली,
वो उठी और आईने के सामने खड़ी हुई।
आँखों में देखा,
और पहली बार खुद से कहा—
“मैं ऐसे मरने के लिए नहीं बनी।
मेरे भीतर अब भी एक चिंगारी है।”
उस चिंगारी ने फुसफुसाया—
“प्यार अगर घुटन दे,
तो वो प्यार नहीं,
एक ज़ंजीर है।
तोड़ दो इसे।
अपने चेहरे को वापस पा लो।
क्योंकि रोशनी माँगती नहीं,
खुद बनानी पड़ती है।”
पहले वो सवालों से डरती थी,
पर अब वही सवाल
उसके पंख बनने लगे।
उसने सीखा—
कि हर ग़लत रिश्ता,
हर घुटन भरा पल,
दरअसल एक कक्षा है
जहाँ ज़िंदगी तुम्हें पढ़ाती है—
कैसे अपनी आत्मा को बचाना है।
धीरे-धीरे उसने
गुस्से को शब्दों में ढाला,
घृणा को आँसुओं से धोया,
और खुद को
फिर से अपने हाथों में सँभाला।
उस रात से कहानी बदल गई।
वो लड़की अब बुझा चेहरा नहीं थी,
वो राख से उठती लौ थी—
जिसने सीखा,
कि सबसे कठिन यात्रा
दूसरों से नहीं,
खुद से शुरू होती है।