बातें करो ना गुल की ना चश्मे बहार की ,
बातें हों गरीब के पसीने के,आबशार की l
यूँ रो चुके बहुत हैं हम अपने हालात पर,
अब बात हो तो बस पत्थर पर प्रहार की l
वो सब गुलाब हैं उस पर चढ़ेगा ये रंग क्यूँ,
गुलाल फेंक,लगा खुद गुलाब क्यार की l
रेत भरी है आंखों में, खुश्क गला उसका है,
लब पर चुप्पी वर्षों की, नजरें ढूंढे इजहार की l
स्वेद से लथपथ बैठा इस तपती दोपहरी में,
हक़ क्यूँ मिल नहीं पाता ऐसे काश्तकार की l
.
खूब समझते हैं चुप्पी हम,खूब बूझते हैं वादे,
झूठ के पीछे का सच कैसे हो अधिकार की l
हाथ तने हैं सबके, भीतर गुस्सा है अब की,
अब गिनती क्या गिनाये हम गुनाहगार की l
खतरे हमारे नाम लिखे मुफलिसी से दिन,
अब की होगी हक़ की लड़ाई आर पार की l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)