दर्द की फ़ितरत भी, हर बार जुदा सी थी..
वो शक्ल उजली थी, झलक ख़ुदा सी थी..।
चेहरों की सब हकीकत, मुखौटे छुपा गए..
सब हंस रहे थे, और फ़िज़ां में उदासी थी..।
वो आएं कि ना आएं, ये अख्तियार उन्हीं को है..
उनके लिए तो तर्क–ए–ताल्लुक़ बात ज़रा सी थी..।
वो बगिया तरसती आंखों से, देखती रह गई..
बदली बरसती कैसे, वो खुद ही प्यासी थी..।
उनकी बज़्म में भी दिल को तस्कीन ना हुआ..
उनकी सोच सियासी, उनकी बात सियासी थी..।
पवन कुमार "क्षितिज"