हम सलीका–ओ–अदब, तलाशते रहे..
ज़िंदगी जीने का, सबब तलाशते रहे..।
घूम कर फिर लौट आए, ख़्याल वहीं..
हम बे–ख्याली का, ढब तलाशते रहे..।
हमने तो उनको, सफगोई से कहा सब..
वो दिल में कोई, मतलब तलाशते रहे..।
मेरा बयां तो बस, इंसानियत पे मौजूं थे..
कुछ उसी में फिर, मजहब तलाशते रहे..।
हर तरफ़ किसने, चिनवाई हैं ऊंची दीवारें..
हम तो इस शहर में, मरहब* तलाशते रहे..।
*मरहब–खुली जगह
पवन कुमार "क्षितिज"