जब से अपनी नजर से गिरा घर नहीं गया
और उसपे ये ताज्जुब फिर भी मर नहीं गया
अबकी जो तजुर्बा था कि लौट करके गांव में
ताउम्र खस्ताहाल जिया फिर शहर नहीं गया
यह बोझ है गुनाहों का कि मंदिर जाकर भी
बरसों बाहर ही खड़ा रहा अंदर नहीं गया
एक मेरी दोस्त रहती थी बदनाम गली में
जब भी गया खुलकर गया छुपकर नहीं गया
है याद अब भी बाबा को मुझे देखते ही बोले
यह फिर से लौट आया है क्यों मर नहीं गया
जब से यकीन करने की आदत है छोड़ दी
फिर उसके बाद कोई भी ठग कर नहीं गया....
कवि - श्री देवेंद्र पांडेय