प्रतीक्षा की
बहुत जोही बाट
जेठ बीता, हुई वर्षा नहीं, नभ यों ही रहा खल्वाट
आज है आषाढ़ वदि षष्ठी
उठा था ज़ोर का तूफ़ान
उसके बाद
सघन काली घन घटा से
हो रहा आच्छन्न यह आकाश
आज होगी, सजनि, वर्षा—हो रहा विश्वास
हो रही है अवनि पुलकित, ले रही निःश्वास
किंतु अपने देश में तो
सुमुखि, वर्षा हुई होगी एक क्या, कै बार
गा रहे होंगे मुदित हो लोग ख़ूब मलार
भर गई होगी अरे वाह वाग्मती की धार
उगे होंगे पोखरों में कुमुद पद्म मखान
आँख मूँदे कर रहा मैं ध्यान
लिखूँ क्या प्रेयसि, यहाँ का हाल
सामने ही बह रही भागीरथी, बस यही है कल्याण
जिस किसी भी भाँति गर्मी से बचे हैं प्राण
आज उमड़ी घन घटा को देख
मन यही करता कि मैं भी, प्रियतमे, उसका करूँ आह्वान
—कालिदास समान
सामने सरपट पड़ा मैदान
है न हरियाली किसी भी ओर
तृण-लता तरुहीन
नग्न प्रांतर देख
उठ रहा सिर में बड़ा ही दर्द
हरा धुँधला या कि नीला—
आ रहा चश्मा न कोई काम
किंतु मुझको हो रहा विश्वास
यहाँ भी बादल बरसने जा रहा है आज
अब न सिर में उठेगा फिर दर्द
लग रहा था आज प्रातःकाल पानी सर्द
गंगा नहाने वक़्त
आया ख़्याल
हिमालय में गल रही है बर्फ़ :
आज होगा ग्रीष्म ऋतु का अंत।