जीवन के आपा धापी में
कब कहो कहां कौन मिला
कुछ छूटे टूटे रूठे
कुछ बनते बिगड़ते बनते
कुछ गिरते पड़ते उठते
कुछ रोते हंसते गाते।
कुछ अंधियारी सी
कुछ उजियारी सी
कुछ कुंभलाती खिलती सी
कुछ फैलती मिटती सिमटती सी
कुछ मीठा तीखा
कभी सीता गीता
कभी राजू बबिता
कभी पवन पतिता
कभी रावण सीता
कभी खाता पीता
कभी वक्त बेवक्त
कभी खुद आसक्त
मोह विरक्त
कभी पानी रक्त
कभी दुश्मन भक्त
यहां कुछ भी
निश्चित नहीं है।
यहां कुछ भी
संचित नहीं है।
सब पानी है
जो पाणियों से भी रहा।
जीवन का प्रवाह
सबकुछ कह रहा।
बहने दो बढ़ने दो
यही है जीवन की कला
अंत भला तो सब भला
यही है जीवन की कला
अंत भला तो सब भला..