अगर भाई खो जाए…
तो बस वो नहीं जाता,
तुम्हारा आधा बचपन, आधा भरोसा, आधा नाम भी चला जाता है।
लोग कहते हैं — वक़्त सब ठीक कर देगा,
पर कैसे कह दूँ कि ठीक हूँ,
जब मेरी हर साँस में अब भी उसका नाम अधूरा है?
वो जो लड़ता था मुझसे —
अब भी लड़ रहा है —
मेरे आँसुओं से, मेरी रातों से, मेरे इस अनकहे ग़ुस्से से…
कि “तू क्यों रोती है? तू तो मेरी बहन है — मज़बूत!”
मगर भाई…
तेरे जाने के बाद मज़बूती भी टूटी है।
अब जब भी गिरती हूँ,
कोई हाथ नहीं उठाता —
तेरे जैसे डाँटकर कहने वाला —
“बहन! गिरना मना है, उठ जा!”
माँ अब भी तेरे लिए दो रोटी ज़्यादा बना देती है,
और फिर मौन हो जाती है,
जैसे तेरे लिए भगवान से झगड़ रही हो —
पर शब्दों में नहीं,
उस चुप्पी में जो हर पूजा में बसी है
तेरा तकिया अब भी वहीं है,
तेरे कमरे में अब भी हल्की सी गंध है —
तेरे पसीने की, तेरे हँसने की,
तेरे जाने के ठीक पहले के स्पर्श की…
भाई…
तू गया नहीं —
तू हर उस पल में है
जब मैं टूटी हुई होती हूँ और फिर भी साँस ले रही होती हूँ।
तू मेरे हर डर के पीछे खड़ा है —
अब भी ढाल बनकर,
अब भी छाया बनकर।
और मैं जानती हूँ —
अगर तू मुझे देख पा रहा है,
तो तू चुपचाप हँस रहा होगा,
तेरे उसी अंदाज़ में,
जैसे कह रहा हो —
“पगली बहन, तू मुझे कैसे खो सकती है…
मैं तो तुझमें हूँ,
तू जब रोती है, मैं तुझमें रोता हूँ।”
भाई…
कभी-कभी लगता है —
तेरा जाना मेरे जीवित रहने की सबसे बड़ी परीक्षा है।
और फिर याद आता है —
तू तो कहता था,
“तू हार नहीं सकती बहन —
तू मेरी है।”