अगर उस दिन कर्ण को
जाति नहीं,
हुनर से परखा गया होता…
अगर सभा में चीरहरण नहीं,
स्त्री का सम्मान होता…
अगर हर मौन में
एक आवाज़ सुनी जाती —
तो कुरुक्षेत्र की धरती
लाल नहीं होती,
हरियाली होती।
अगर भीष्म अपने व्रत से पहले,
अपने हृदय की सुनी होती…
अगर द्रोण ने शिक्षा देने से पहले,
धर्म पूछना छोड़ दिया होता…
अगर कृपा ने
अपनी करुणा को
धर्म से ऊपर रखा होता…
अगर कृष्ण ने मुझे
‘सूतपुत्र’ नहीं,
‘पुरुषार्थ’ से देखा होता…
अगर मेरी माँ ने
मुझे जन्मते ही नहीं छोड़ा होता…
तो शायद
इतिहास का हर पन्ना
तलवार नहीं,
प्रेम से लिखा जाता।
तब महाभारत,
महायुद्ध नहीं —
‘महाशांति’ होता।
एक ऐसा युद्ध,
जो कभी लड़ा ही नहीं गया,
क्योंकि हर हृदय में
पहले ही
अहंकार हार गया होता।
न कुरुक्षेत्र बनता,
न कौरव-पांडव बनते…
सिर्फ मनुष्य होते —
और मनुष्यता।
न धनुष चढ़ता,
न गांडीव तनता,
न रथों की ध्वनि होती,
न रक्त की नदी बहती।
तब एक और इतिहास होता —
जिसे युद्ध नहीं,
समझ ने रचा होता।
तब मैं —
कर्ण,
वो पात्र न होता
जिसे तुम बार-बार व्याख्यायित करते हो।
मैं एक पुत्र होता,
एक भाई,
एक मित्र,
एक क्षत्रिय —
जिसे कभी कुछ सिद्ध नहीं करना पड़ता।
अगर महाभारत, महाशांति होता…
तो शायद —
तुम्हारे भीतर भी
अब तक युद्ध न चल रहा होता।
– कर्ण की आत्मा से
उन सबके लिए
जो स्वीकृति से वंचित रह गए।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




