चार जन... ले के अकिंचन
सोच अलग कुछ अश्रु सिंचन
ऊपर से खुद को ताकता मैं
वो पाँचवा मैं...
दो को ख़र्चे की चिंता
दो को बशर्ते चिंता
पाँचवे को ख़र्चे पर चर्चे की चिंता
वो पाँचवा मैं...
राम -राम की टेर लगती
सत्य कहते... न देर लगती
पीछे सब के सब...
और सरदार-ए-कारवाँ मैं
वो पाँचवा मैं...
छण-भंगुर हैं अश्रु सारे
कौन मरता है किस के मारे
कर्मकांड में सब व्यस्त
इधर तन्हा मैं...
वो पाँचवा मैं...
नाम से लाश का सफ़र
बहुत कम है उल्लास का सफ़र
विदा होने को... झट से घंट में
गंगा जल फुहारता मैं
वो पाँचवा मैं...
अग्नि से ज्यों देह जलती
वर्षो पुरानी नेह जलती
अपनों के उतावलेपन को देख
मुसलसल काँपता मैं...
वो पाँचवा मैं...
सिद्धार्थ गोरखपुरी