अपनी अपनी महफिल है अपना साज है
अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग है
वो कभी मिलते नहीं मिलते हैं तो रोते हुए
हर घड़ी देखो यहां पे अर्थ की फरियाद है
कौन कैसा हैं यहां मालूम ही चलता नहीं
दमकता है चेहरा पर दिल पे गहरा दाग है
मुहब्बत भी तिजारत बन गई है आजकल
दास तन्हा इस तरफ उस तरफ बाजार है
कह रहा है चीख कर हर आदमी रोते हुए
अब कहां जाएं कोई जलियांवाला बाग है