है सूरज का एक धर्म
चलता रहे धरा का कर्म
है चाँद का एक धर्म
रुके न प्रकृति का कर्म
है सागर का एक धर्म
रुके न नदी नालों का कर्म
हवा जल और धुप गर्म
चलता रहे जीवन का कर्म
निस्वार्थ करते सभी परिश्रम
कहाँ है मददगार मानव हम
दोहन करते है धरा का हम
शास्वत यही हमारा धर्म कर्म
छिन्न भिन्न करते धरा के अंग हम
छीनते जीवों के आश्रय निर्दयी हम
राष्ट्र बनाते धर्म फैलाते चलते हम
तोड़ते सनातन प्रकृति के नियम
प्रकृति के धर्म से देखों कौन है हम
निर्दयी स्वार्थी लालची राक्षश से हम