"ग़ज़ल"
मिरे महबूब अगर साथ तुम्हारा होता!
चाॅंद के पार इक आशियाॅं हमारा होता!!
तिरी मांग ख़ुश-नुमा सितारों से भर देता!
हर तरफ़ पुर-कैफ़ जन्नत का नज़ारा होता!!
सुबह की लाली तिरे हाथों में मेहंदी रचती!
गेसू-ए-बरहम को परियों ने सॅंवारा होता!!
ऐ फ़लक! कितने सितारे हैं तिरे दामन में!
अपनी भी तक़दीर का कोई तो तारा होता!!
आज उस की यादों का सहारा है 'परवेज़'!
ये भी न होता तो मिरा कैसे गुज़ारा होता!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad