रिश्तों की भंवर में उलझकर
इंसान इंसान ना रहा।
पिता को पुत्र तो कहीं
पुत्र को पिता खा रहा है।
ना जज़्बातों की कदर
ना इज़्ज़त ना प्यार
बस चंद सिक्कों की खनक पर
नाचता हर परिवार।
यहां सब बेमानी है
किसी के रहने
ना रहने
आने या जाने से किसी को
घंटा ना फ़र्क पड़ता है।
हर कोई यहां अपनी हीं गुमान में
जिता है।
यही कारण है कि आजकल नाइंटी परसेंट
शादियों के कुछ सालों बाद हीं कट रही तलाक़ की फीता है।
जो सामाजिक ताने बाने के साथ साथ
न्यायिक सिर दर्द बन रहें हैं।
रिश्तों की नज़ाकत को कुछ भी ना समझ रहें हैं ।
बस अपनी डफली अपना अलग हीं आलाप जप रहें हैं।
रिश्तों की भंवर में उलझकर हर रोज़
लोग मर रहें हैं।
हर तरफ बेचैनी
दर्द
आवारापन
बंजारापन
हिकारतें बढ़ रहीं हैं।
जो लोगों की हँसी खुशी को
लील रहीं हैं।
क्या क्या ना कर रहीं हैं।
रहें नहीं लोग जिनमे बर्दाश्त की
शक्ति थी
परिवार के प्रति प्यार
सम्पूर्ण समर्पण थी।
यहां बेटा बाप की नहीं सुनता
और बाप अपने बाप का।
आपस में सब लड़ रहें है
घर टूट रहें जनाब का।
हाय क्या हो रहा इन रिश्तों को
गौर से देखो इन रिश्तों को..
आदमी ना रहा घर का ना घाट का..
आदमी ना रहा घर का ना घाट का..

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




