सीता का श्रृंगार
मेरी माता सीता जब करतीं श्रृंगार है ,🌿
कोटि-कोटि रतिया लजा सभी जातीं हैं
मेनका पानी भरे उनके आगे अप्सराएं सभी शरमाती है
अखियन में डारे जब वो कजरा तो बदुली में बिजली सी कौंध जाती है
माथे पे लगावें जब वो बिंदिया ऐसा लगता है ज्यों सूर्य उदित हो रहा हो भौंहों की पहाड़ी से
नाक की नथुनिया तो ऐसे सोहे ज्यों चन्दा चमक रहा हो अपने हाला में
कानों में कर्ण फूल ऐसे पहिरे ज्यों बांध लिहन बसंत बहार निज कानों से
अधरो की लाली गुलाब सी सुहाती है
कारे धुघराले केश ऐसे लहराये जैसें नागिन बलख बलख बलखाए जातीं हो
चोटी में बांधे जब वो गजरा तो
बेला बहार समीर बन जातीं हैं
मांग में सजाये जब वो सेनुरा (सिन्दूर)
तो सुहागिनों में सौभाग्य का आशीष बन जातीं हैं
ओढ़नियां शीश पर जब डारे वो
नव सिद्धियां उसके रूप में समा सभी जातीं हैं