इन दिनों वक्त मिला, तो इक अज़नबी की तरहा..
लबों पर हंसी थी, मगर बे–ज़ान खुशी की तरहा..।
मैं एक एक पल को, अपने मुताबिक़ ढालता रहा..
मगर उसमें खामोशी थी, सोई हुई बस्ती की तरहा..।
कभी दो कदम साथ चला, कभी आगे निकल गया..
कभी किसी मोड़ पर रुका रहा, बंद घड़ी की तरहा..।
कभी दिल खोलकर, लुटाता रहा खज़ाना दिल का..
कभी रखता रहा हिसाब, महाजन की बही की तरहा..।
मुझसे तो उसका दामन, कभी पकड़ा ही न गया..
वो रगों में बहता रहा, उफनती हुई नदी की तरहा..।
पवन कुमार "क्षितिज"