हर तरफ़ गोलमाल है साहब
आपका क्या ख़याल है साहब
कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो
आज ‘भगवत दयाल’ है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले-फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देखभाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब
जिस्म बिकते हैं, रूह बिकती हैं
ज़िंदगी का सवाल है साहब
आदमी अपनी रोटियों के लिए
आदमी का दलाल है साहब
इसको डेंगू, उसे चिकनगुनिया
घर मेरा अस्पताल है साहब
तो समझिए कि पात-पात हूँ मैं
वे अगर डाल-डाल हैं साहब
गाल चाँटे से लाल था अपना
साहब समझे गुलाल है साहब
मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा—
‘आपका ट्रंक-काल है साहब'
मरता जाता है, जीता जाता है
आदमी का कमाल है साहब
इक अधूरी ग़ज़ल हुई पूरी
अब तबीयत बहाल है साहब
-प्रदीप चौबे