लड़खड़ाती हुई
मैं शब्दों की माला बुनती हूँ !
भावार्थ अगर अनेकों निकले,
तो क्या मैं अपराधी हूँ !!
संजोग भी ऐसा बनता,
जिसे मैं कहाँ कभी चुनती हूँ !
अनायास वो मंथन जगाता
जिस की शिकार बनती हूँ !!
माना जहाँ की, नज़र पढ़ी लिखी,
तो मैं कहाँ अनपढ़ हूँ !
क्यों नज़रिया तमाशा करें,
धुँआ की आंधीमे 'मैं' खो जाती हूँ !!
यक़ीन करो, भरोसा रखो
उपदेश नहीं, बस समझाती हूँ !
तेरा-मेरा न हमारा, सब को
सत्य सागरमें 'मैं' नहलाती हूँ !!