बार बार ना मेरे शहर के, हालात का तफ्सरा कीजे..
मुहब्बत की ग़ज़ल का भी जिक्र तो ज़रा कीजे..।
ये माना कि गिरते हैं, दरख़्तों के पत्ते वक्त से पहले..
बहारों के मंसूबों पर भी, कुछ तो भरोसा करा कीजे..।
मन भटककर लौटा तो, अनजाने ख़्यालात साथ थे..
यूं ग़फलत में ना रहें, मन पर कुछ तो पहरा कीजे..।
कितने मंज़र हर रोज़, गुज़र जाते हैं आंखों से तेरी..
कभी गौर से देखिए जहाँ को, कुछ तो ठहरा कीजे..।
हमसे ना यूं बेख़याली में, रस्म-ए-तर्क-ए-मोहब्बत हो..
इस कदम से पहले ज़रा, अपने दिल से मशवरा कीजे..।