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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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कविता की खुँटी

                    

धरती की अनकही दास्ताँ - विश्व पर्यावरण दिवस 2025 - अभिषेक मिश्रा

Jun 05, 2025 | विषय चर्चा | लिखन्तु - ऑफिसियल  |  👁 284,451

धरती की अनकही दास्ताँ - विश्व पर्यावरण दिवस 2025 - अभिषेक मिश्रा
कहानियाँ हैं दबीं हुई सीने के नीचे,

हर दरार में बसी है एक अनकही रीत।

ये धरती नहीं बस ज़मीन का टुकड़ा,

ये है सदीयों से चलती अनकही दास्तों की प्रीत।

"धरती की अनकही दास्तां कविता कवि अभिषेक मिश्रा की एक गहरी संवेदना है, जो हमें हमारी धरती माँ की अनकही पीड़ा और उसकी अपार करुणा से रूबरू कराती है। इस कविता का उद्देश्य केवल प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करना नहीं है, बल्कि उस दर्द को सामने लाना है जो धरती हर दिन सहती है पेड़ों की कटाई, नदियों की सूखावट, प्रदूषण और मानव के स्वार्थ के कारण हो रहे विनाश की कराह।

हरियाली की सांसें रोकी हैं,

नदियों की धारा टुटी है।

जिस धरती ने जनम दिया,

वहीं आज सबसे छूटी है।

कवि चाहते हैं कि हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हो रहे पर्यावरणीय क्षरण को समझें, उसकी गंभीरता को महसूस करें और एक संवेदनशील, जिम्मेदार इंसान बनें। यह कविता हमें यह एहसास दिलाती है कि धरती के बिना हमारा अस्तित्व संभव नहीं और अब वक्त है जागने का, संभलने का और प्रकृति की रक्षा का।

पेड़ काटे, पर्वत चीरे,

खुदगर्जी में कितने जीते।

साँसों का व्यापार हुआ अब,

प्रकृति भी अब हमसे रूठी है।

विश्व पर्यावरण दिवस 2025 के अवसर पर यह कविता हमें प्रेरित करती है कि हम सिर्फ शब्दों में नहीं, बल्कि अपने कर्मों में भी प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान दिखाएँ। यही कवि का असली उद्देश्य है धरती की अनकही दास्तां को सबके दिल तक पहुँचाना और एक बेहतर, स्वच्छ, हरित भविष्य की ओर कदम बढ़ाना।


"धरती की अनकही दास्तां"
(विश्व पर्यावरण दिवस विशेष कविता)


छाँव कहाँ है अब वृक्षों की?
पंछी पूछें थक कर डाली से।
धूप दहकती, छाले पड़ते,
पीड़ा फूटी हर क्यारी से।

कल-कल करती नदियाँ सूखी,
कूड़े की बोली गूंजती है।
जहाँ कंचन-जल बहता था,
वहाँ अब विष की धारा है।


फूल नहीं हैं अब उपवन में,
काँटों का ही राज है यहाँ।
रंग-बिरंगे पर छिन गए,
भ्रमर भटकते आज कहाँ?

धरती माँ की गोद जली है,
सूना सूना हर एक अंग है।
हमने छेड़ा प्रकृति का गीत,
अब बजता है शंख संग्राम।


किसने छीना छाया उसकी?
किसने काटे जीवन के बीज?
किसने लूटा पर्वत श्रृंग?
किसने खोई सच्ची नीज?

हमने ही बाँटा है उसे,
प्लास्टिक की परछाईं से।
विकास के नाम पर लीला,
छिपी हर सच्चाई से।


पर अब भी बचा है कुछ,
बीजों में है प्राण अभी।
धरती की सूनी मिट्टी में,
छुपी है पहचान अभी।

चलो बनें फिर से वटवृक्ष,
जो सबको छाँव दे पाएँ।
धरती के आँसू पोंछ सकें,
इतना तो मानव बन जाएँ।


ना हो सूनी कोई शाख़,
ना पत्ते बिन पवन बहें।
हर कोंपल खिलती जाए,
हर ऋतु में जीवन झलके।

विकास की नई परिभाषा,
प्रकृति से हो मेल हमारी।
जहाँ मशीनें न हों दुश्मन,
हरियाली हो सच्ची यारी।


संघर्ष नहीं, संवाद करें,
धरती से सीखें फिर जीना।
माटी से अपनापन जोड़ें,
आओ फिर से सबको सींचें।


लेखक अभिषेक मिश्रा




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (1)

+

वन्दना सूद said

बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति 👏👏👌👌संदेशप्रद और सत्य उजागर करती रचना

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