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कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

बाजारवाद ही है असली समाजवाद - चन्द्रभान प्रसाद

May 02, 2024 | विषय चर्चा | लिखन्तु - ऑफिसियल  |  👁 23,658


बाजारवाद ही है असली समाजवाद - चन्द्रभान प्रसाद



मुम्बई में आयोजित वर्ल्ड सोशल फोरम का शोक गीत सम्पन्न हुआ। दुनिया भर से आए हुए मन-मुग्ध वामपंथी, स्वघोषित प्रगतिशील और एनजीओ उद्योग के स्वामी वैकल्पिक विश्व की तस्वीर खींच कर चले गए। मार्क्सवादी अवधारणा का समाजवाद रूस, पूर्वी यूरोप तथा अब चीन से भी अलविदा हो गया, इस पर चर्चा नहीं हुई। समाजवाद को फिर से स्थापित करने पर भी चर्चा नहीं हुई। बाजारवाद और साम्राज्यवाद से मुक्त विश्व ही एक विकल्प है, ऐसा कहा गया। बाजारवाद को विश्व का शत्रु घोषित कर दिया गया।

र्वल्ड सोशल फोरम अपने ही अन्तर्विरोधों में हांफता रहा। नाम र्वल्ड सोशल फोरम, पर विश्व के सोशल प्रश्नों पर बात नहीं हुई। खासकर तब, जब सम्मेलन भारत में हो रहा हो, जो कि सामाजिक समस्याओं की मातृभूमि है। जिस तरह के थके-हारे बुद्धिजीवी मुम्बई में जुटे थे, उनका भारत की सोशल समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता। वे सारी समस्याओं की जड़ आर्थिक ढांचे में पाते हैं। आर्थिक ढांचा दुरुस्त तो सब कुछ सही- यही है उनका मंत्र। तब बात अर्थ तंत्र पर ही हो जाए।

किसी भी स्वस्थ जीवन्त और मानवीय आर्थिक ढांचे के चरित्र में होती है निर्धनता की अनुपस्थिति, ऊर्जावान आर्थिक जीवन। सोशल फोरम में तर्क दिया गया कि बाजारवाद में व्यक्ति उपभोक्ता बनकर रह जाता है, पैसे के लिए पागल बन बैठता है, बाजारवाद समाज को भी नियंत्रण में कर लेता है, सामाजिक मूल्य टूट जाते हैं। बाजारवाद पर लगे ये आरोप प्राय: सच हैं। पर बाजारवाद की संस्कृति में आम आदमी, खासतौर पर निर्धन तबके पर क्या प्रभाव पड़ता है? बाजारवाद के नियंत्रण का समाज कैसा होता है? इस पर चर्चा नहीं हुई, क्योंकि फोरम की चिन्ता के केन्द्र में न तो आम आदमी था और न ही समाज।

बाजारवाद एक स्व-परिभाषित दर्शन है। बाजारवाद की संस्कृति में व्यक्ति उपभोक्ता बन जाता है तथा उन वस्तुओं की खरीद करने लगता है, जो सामान्यतया जीवन के लिए गैर जरूरी हैं, मसलन, टूथपेस्ट, टॉयलेट पेपर, नैपकिन, कोल्ड ड्रिंक्स और बोतलबंद पानी।

बाजारवाद की संस्कृति में सबसे पहले उच्च-मध्य और मध्यवर्ग शामिल होता है। इनकी संख्या भारत में लगभग तीस करोड़ है। तीस करोड़ की जनसंख्या वाले मध्यवर्ग का मात्र एक छोटा सा हिस्सा बाजारवाद की संस्कृति का हिस्सा बन पाया है।

फर्ज करें कि इस वर्ग का हर व्यक्ति टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल करना शुरू कर दे, तो इसके सैकड़ों नए कारखाने लगेंगे, हजारों प्रबंधकों, इंजीनियरों और लाखों मजदूरों की जरूरत पड़ेगी। साथ ही हजारों डीलर, सप्लायर, खुदरा दुकानदार पैदा होंगे। जाहिर है, जो रोजाना टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल करेंगे, वे यात्रा या सामाजिक भोजों में बोलतबंद पानी तथा कोल्ड ड्रिंक्स का भी इस्तेमाल करेंगे। अभी इन वस्तुओं का इस्तेमाल मध्य वर्ग का पांच प्रतिशत भी नहीं करता है। यदि तीस करोड़ लोग इनका इस्तेमाल अपने दैनिक जीवन में करने लगें, तो उत्पादन और रोजगार के अनगिनत अवसर पैदा हो जाएंगे। ऐसा ही तब भी होगा, जब एयर कंडीशनर या ग्रीटिंग कार्ड का उपयोग बढ़ेगा।बाजारवाद एक सांस्कृतिक पैकेज होता है।

जो उपभोक्ता टॉयलेट पेपर इस्तेमाल करता है, वह एयर कंडीशनर में ही सोना पसन्द करता है, एसी कोच में यात्रा करता है और बोतलबंद पानी साथ लेकर चलता है। इस संस्कृति के चलते लौह उत्खनन से लेकर बिजली, कांच और ट्रांसपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यूरोप और अमेरिका में लाखों लोग केवल टॉयलेट पेपर के उद्योग में रोजगार पाते हैं। बाजारवाद परंपरागत सामाजिक मूल्यों को भी तोड़ता है। पैसा कमाने के लिए कोई भी पेशा नीच नहीं होता। अभी हाल ही में प्रगति मैदान में ऑटो मेला लगा था, जिसमें अंग्रेजी मीडियम स्कूलों के सैकड़ों युवा मॉडलिंग का काम कर रहे थे। एक दशक पहले इस तरह के व्यवसाय को नीचा समझा जाता था। दिल्ली हो या लखनऊ या भारत का कोई अन्य शहर, शांपिंग सेंटरों के सामने अंग्रेजी मीडियम स्कूलों से शिक्षित नौजवान किसी नई मोटर साइकिल, मोबाइल या टूथपेस्ट का प्रचार करते देखे जा सकते हैं। उनके साथ ही खड़ा होता है गुब्बारे वाला या ठेले पर मूंगफली बेचने वाला।

दो अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के नागरिक एक साथ सड़क पर खड़े होते हैं, एक ही माचिस से सिगरेट या बीड़ी सुलगाते हैं, ठेले की चाय साथ-साथ पीते हैं। एक दशक पहले यह नजारा संभव नहीं था। यह बाजार का ही व्याकरण है कि सुलभ शौचालय पर ब्राह्माण युवक भी नौकरी करते हैं। बाजारवाद के नियंत्रण वाला समाज नया होगा नए मूल्यों के साथ, जहाँ कोई पेशा अपवित्र नहीं रह जाएगा। इस दिन का इंतजार दलित भी सदियों से कर रहा है। परंपरागत अर्थव्यवस्था में मध्य वर्ग की समस्या पैसा छिपाने की होती है। पैसा कमाने के लिए इस वर्ग के बच्चे प्रगति मैदान में डांस नहीं करते या मूंगफली बेचने वाले की माचिस नहीं छूते। यह सब पाप था। परंपरागत अर्थव्यवस्था में मुद्रा जड़ होकर मध्य वर्ग की तिजोरी में सड़ती रहती है या जेवरात के रूप में मृतप्राय रहती है। बाजारवाद की संस्कृति में मध्य वर्ग के सामने समस्या पैसा कमाने की रहती है। खर्च इतने कि पैसे की कमी बनी रहती है। पैसा अब कैद से मुक्त हो चुका होता है। वह बाजार में बहता है, उत्पादक कामों में लगता है और बह कर आम आदमी की जेब में भी जाता है। इससे आम आदमी का जीवन स्तर उठता है। उसकी भी जरूरतें हैं, इसलिए पैदल चलने वाला श्रमिक साइकिल खरीदता है, साइकिल वाला मोटर साइकिल और फिर कार। इसी पूरी प्रक्रिया में औद्योगिक क्रांति होती है। यह बाजारवाद का ही व्याकरण है कि एक पंजाबी दलित न्यूयॉर्क में टैक्सी चलाता है, पर अपने निजी उपयोग के लिए अलग से कार खरीद लेता है। 11 सितम्बर के आतंकवादी हमले के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था हिल गई थी, आर्थिक जीवन ठहर सा गया था।

अर्थशास्त्रियों की सलाह पर राष्ट्रपति बुश ने राष्ट्र को टीवी पर सम्बोधित किया: 'गो शॉपिंग', यानी अमेरिकियों बाजार में जाओ और खरीदारी करो। परिणाम उम्मीद के ही अनुसार निकला। बाजार जीवन्त हो उठा, उद्योग ऊर्जावान हो गया, ट्रेड बढ़ा और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गई। परंपरागत समाजवाद ने बाजारवाद को नकारा। रूस और पूर्वी यूरोप में समतावाद आ गया। उद्देश्य था न कोई अमीर होगा, न कोई गरीब। खाएं तो सब, भूखे रहेंगे तो सब। नतीजे घातक रहे। उद्योग ठहर गया, रूस और पूर्वी यूरोपीय देश अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप के सामने याचक बन गए। पूरा समाज निठल्ला हो गया। बाजारवाद में आम नागरिकों और सम्पन्न तबके के बीच की खाई गहरी हो जाती है, पर आम आदमी की मूलभूत जरूरतें पूरी होती हैं।

टेलीफोन, टीवी, यातायात, शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। जिस दिन सभी भारतवासियों के घर में टेलीफोन का कनेक्शन और कलर टीवी होगा, समझें कि भारत में समाजवाद आ गया। जिसके पास ये दोनों सुविधाएं होंगी, उसके जीवन की शेष सारी जरूरतें पूरी हो चुकी होंगी। जहाँ बाजारवाद समाजवाद का अचेतन संवाहक है, वहीं परंपरागत समाजवाद का दर्शन परंपरावादी समाज का सचेत संवाहक है। भारत में बाजारवाद की क्रांति ग्लोबलाइजेशन से अविभाज्य रूप से जुड़ी है।

अमेरिका और यूरोप की बहुराष्ट्रीय कंपनियां नए समाजवाद की सबसे प्रखर देवदूत हैं। मुम्बई में जुटी भीड़ उन परंपरावादियों की थी, जो मुदा के फैलाव के विरोधी हैं और परंपरावाद के प्रवक्ता। पुरातनपंथी समाज निर्धन को केवल आँसू देता है और धनवान को धन के बावजूद जीवन के लुत्फ उठाने से रोकता है। मुम्बई की शोक सभा एक दुखद घटना थी।

यह सामग्री नवभारत टाइम्स के चन्द्रभान प्रसाद जी के लेख से ली गयी है




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