कई बार लगता है कि किसी को अपने पास रखने के लिए,
हमें अपने आप से दूर जाना पड़ता है।
किसी को इतना चाहने लगते हैं कि धीरे-धीरे उस इंसान की पसंद, उसकी आदतें, उसकी खामोशी तक हमारे अंदर उतर जाती है।
और हमें यह भी समझ नहीं आता कि कब हम खुद से दूर हो गए।
हम यह सोचते हैं कि शायद यही प्यार है ,
खुद को मिटा देना, बस उसे देखना, उसके लिए रहना।
पर क्या यही सच है?
असल में,
प्यार में खुद को खोना नहीं पड़ता,
प्यार में खुद को पाना चाहिए।
किसी और की दुनिया में इतना घुल जाना कि अपनी दुनिया धुंधली लगने लगे ,
शायद वो मोह है, प्यार नहीं।
और मोह की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वो हमें बेबस, मेहग़ूम और मजबूर बना देता है ,
तीनों ऐसे जज़्बात जिनसे हम बचना चाहते हैं।
कभी-कभी हम किसी को इतने भीतर तक अपनाते हैं कि,उसके बर्ताव, उसके शब्द, यहाँ तक कि उसकी ख़ामोशी भी हमारे लिए इशारा बन जाती है।
हम हर बार खुद से समझौता करते हैं…
सोचते हैं, "कोई बात नहीं, वो मेरे लिए इतना ही करदे"
पर वो उतना भी नहीं करता…
और हम खुद को समझाते हैं कि शायद हम ही ज़्यादा उम्मीद कर रहे थे।
तो क्या किसी को पाने की कीमत खुद को खो देना है?
नहीं
पाना कभी भी खोने की शर्त पर नहीं होना चाहिए।
रिश्ते अगर किसी की पहचान मिटा कर बनते हैं, तो वो रिश्ते नहीं होते — वो समझौते होते हैं, और समझौते अगर सिर्फ एक तरफ़ा हों, तो धीरे-धीरे आत्मा को थकाने लगते हैं।
असल जुड़ाव वो है ,
जहाँ दो लोग एक-दूसरे की दुनिया में शामिल तो हों,
पर अपनी दुनिया छोड़कर नहीं,
बल्कि साथ लेकर आए हों।
हमें ये समझना होगा कि
प्यार तब पूरा होता है जब वो दो अस्तित्वों को एक में नहीं,
बल्कि दो आज़ाद आत्माओं को साथ चलने देता है।
किसी को पा लेना महत्वपूर्ण नहीं,
अपने आप को खोए बिना उसे साथ रख पाना ,
वो कला है, वो प्रेम है, वही सच्ची उपलब्धि है।
क्योंकि अगर खुद को ही खो दिया,
तो जो साथ बचेगा, वो तुम्हारा नहीं होगा ,
वो बस किसी और की परछाई में तुम्हारा खोया हुआ अक्स होगा।