वैसे तो बहुत से नज़ारे,
नजरों से ओझल हुए जा रहे हैं..।
ना धरती की वो सौंधी खुशबू,
ना वो नीला गगन ही, उतना नीला रहा..।
बहुत सी आवाज़ें भी जाने कहां
विलीन हो गई,
जाने अनजाने पक्षियों की..
हवाएं भी अब सहमी सी है
वो नहीं चाहती कि उसको
कोई खुलकर अपनी सांसों में
भर ले..
फूलों की खुशबूओं में भी
अब कुछ फर्क सा नहीं रह गया है..
मगर आज मुझे बचपन का वो वक्त
याद आ रहा है,
जब हम जुगनुओं को
चमकते देखते थे,
अंधेरी सियाह रातों में..
और अपनी अंजुली में भरने को आतुर
दौड़ते थे उनके पीछे पीछे..
मगर अब चकाचौंध करती कृत्रिम
रोशनियों से चुंधियाती आंखों से वो
नन्हा शीतल प्रकाश कहीं दिखलाई ही नहीं पड़ता..
कही हो गया है गायब,
या विलुप्त प्रजाति की सूची में
दर्ज़ करा लिया है अपना नाम..
आपको कहीं दिखे तो मुझे भी बताना..
और हो सके तो उसको मेरी याद देना..
बोलना उसकी वो टिमटमाहट मेरी आंखों में
अमिट रूप से बसी हुई है..
पवन कुमार "क्षितिज"