फिसलती हुई उम्र, और ये उलझी हुई जिंदगानी..
कभी सब कुछ हकीकत, कभी सब कुछ फ़ानी..।
दुनिया ने तो हर कदम पर, सबक दिया हमको..
सब कुछ सीखा,मगर दुनिया की चाल न जानी..।
ये बस्ती गुज़रे लोगों की, दास्तानों से आबाद है..
फिर भी रह रह के, दिल को कचोटती है वीरानी..।
वो कुरेदते हैं ज़ख्म कि, कुछ तो अफसाने होंगे..
हम मुस्कुराते रहे, और जुबां को रखा बेज़ुबानी..।
उनके बगैर उदासी ने, सब राज़ ज़ाहिर कर दिए..
न सलीका काम आया, न काम आई निगहबानी..।
पवन कुमार "क्षितिज"