🏠पास पड़ोस🏠
जब हम छोटे बच्चे थे पास पड़ोस
अच्छे थे
तब रिश्ते भी सारे एकदम सच्चे थे
तीज त्यौहार भी लगते अच्छे थे
हो होली दीवाली या कोई और
त्यौहार
सब मिल जुल कर मना लेते थें
तब तिजोरियां छोटी और मन सच्चे थें
कभी मां कभी पड़ोस की चाचियां
एक दूजे का हाथ बंटाती थी
होली के दो रोज पहले ही घर-घर में गुजिया की महक समा जातीं थीं
सच में उन दिनों गुजिया की बात
निराली होती थीं
अब सब कुछ कहीं छूट गया है
अच्छा वाला पड़ोस रुठ गया है
अब त्यौहार भी घर की चारदिवारी में
मना लेते हैं
पड़ोस में है कोई गमजदा
यह भी जान नहीं पाते है
पहले बीमार एक और
तीमारदार अनेक हो जातें थें
देख उन्हें बीमारी दूर भाग जाया करती थीं
अब ना जाने कैसा समय का फेर
या ईर्ष्या और आपसी द्वेष का मन
में हो गया भेद है
एक दूसरे की खुशी किसी से बर्दाश्त
नहीं होती
वह मुझसे ज्यादा रहें दुःखी बस यही कुचक्र चलता रहता है
अब दिल नहीं पत्थर से जान पड़ते हैं
अब पहले का सहयोग रहा नहीं
मन सबके पल रहा वियोग हैं
कोई तो शुरुआत करें पहले दिनों को आबाद करें
बात यह मुमकिन नहीं लगतीं क्योंकि
ताली बजाने के लिए भी
दो हथेलियों का मिलना जरूरी होता है
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✍️#अर्पिता पांडेय