ज़माना हमेशा बेखबर रहा उससे और वह,
अनमोल हीरा आँखों से ओझल होता रहा !!
वह उम्र के मुहाने पर तड़प रहा था और,
ज़माना उसपे लगातार फब्तियाँ कसता रहा !!
पारखी नज़रें रही नहीं अब,
इस अजीब सी मतलबी व्यापार में !!
गिद्ध नजरें उसे नोचती रही और वह,
बेबस तन्हा खुद को ही तकता रहा !!
न ही ग़ालिब था वो और न ही उमर खय्याम,
न ही हासिल हुईं उसे नवाबों की मेहफिलों कभी !!
वो लिखकर शायरियों पे शायराना हरदम,
पोटली बनाकर सिरहाने तह पे तह रखता रहा !!
वेदव्यास मिश्र की बेबस 💝 कलम से..
सर्वाधिकार अधीन है