ये कैसा हादिसा पेश है, कि मंज़र सब बदल गए..
ख़्वाब सब बिखर गए, उम्मीदों के पंख जल गए..।
दिल में उमंगे थीं, आंखों में चमकते थे सितारे कई..
एक साथ जैसे हजारों आफ़्ताब अंधेरों में ढल गए..।
सदा के लिए रह गए, आंसुओं के समंदर आंखों में..
रौशनी के चमकते जुगनू, काल के हाथों मसल गए..।
दिन का उजाला भी अब तो, बहुत सियाह लगता है..
अब तो पहचाने जाते नहीं, खुद के चेहरे बदल गए..।
इन हथेलियों से ये ग़म की रेखाएं, मिटाऊं भी कैसे..
कैसे दर्द भरे पल थे वो, पलभर में सबको छल गए..।
पवन कुमार "क्षितिज"