वो चाहती है मेरे कलाम को,
उदासी जैसे चाहती शाम को।
मिले न मिले ये अलग बात,
शुरुआत चाहती, अंजाम को।
मैं भी उसे ऐसे ढूँढता फिरता,
जैसे बंजारा ढूँढे, मकाम को।
अग्नि परीक्षा दे मिला त्याग,
सीता फिर भी चाहे राम को।
वो भी मुझे इस तरह चाहती,
जैसे मीरा चाहती, श्याम को।
🖊️ सुभाष कुमार यादव