ज़माने-ज़माने का फ़र्क है प्यारे..
हमारे इश्क़ की अँगीठी
कभी जली ही नहीं,
और आजकल कइयों की,
जली भी जल्दी और बुझ भी गई ।
कच्चे लकड़ी के ढेर की तरह था,
हमारे इश्क़ का कारनामा ।
सिर्फ धुआँ ही हुआ
कभी जला ही नहीं,
ऐसा था हमारे इश्क़ का ज़माना ।
लगा कि अब जली..अब जली,
फिर अचानक बुझ भी गई ।
गुटुर गूँ. गुटूर गूँ ..बस ऐसा ही रहा,
हमारे इश्क़ का कबूतरखाना ।
ये आजकल का दौर थोड़ी न है..
झट-पट शुरू होकर मोबाईल से कइयों की,
मोबाईल में ही खट-पट निबट गई !!
----वेदव्यास मिश्र
सर्वाधिकार अधीन है