तू प्रेम था या पिंजरा — ये फ़र्क समझ न पाई मैं,
जो खुद से भी दूर करे, वो छाँव नहीं थी, छाई मैं।
तेरी नज़रों में थी रानी, पर हुक्म तेरा चलता था,
हर दिन इक दरबार सजा, हर रोज़ बनी रियाई मैं।
मेरे कपड़ों पर चर्चा थी, मेरी हँसी पे फ़ैसले,
तू पूजा कहता जाता था, और खुद को ही भेंट चढ़ाई मैं।
मौन रही तो जीत तुझी को, ‘ना’ कहा तो शक किया,
पलकों की हर भीगन को, तूने कह दिया “ढाई मैं।”
मेरे हिस्से का आकाश भी, तेरी मंज़ूरी माँगता था,
अब क्या कहूँ इस प्रेम को, जिसमें रोज़ मिटाई मैं।
अब ना तेरी ख़ामोशी सहूँ, ना तेरा दावा सुन पाऊँ,
जो “मैं” को निगल जाए, वो तुझसे बड़ी लड़ाई मैं।
अब प्रेम करूँगी ख़ुद से — बस ख़ुद से — हर साँस में,
अब प्रेम नहीं कोई ज़ंजीर, अब प्रेम हूँ — सच्चाई मैं।