तुम्हें याद है ना
तुम्हें याद है ना,
जब हम मिले थे गंगा किनारे,
वाराणसी के घाटों पर,
जहाँ संध्या की धूप
जल में बिखर कर
सुनहरी कहानियाँ बुनती थी।
वो शांत दिन,
जिनमें हम बस ख्वाबों में जीते थे,
कहाँ सोचा था तब
कि ये ख्वाब एक दिन
हक़ीक़त में बदल जाएंगे।
न सोचा था कभी,
कि सालों बाद वही लम्हे
फिर लौट आएंगे,
हमारे बीच मौन का सेतु बनाकर,
जैसे गंगा की धीमी लहरें
अतीत की धुन गुनगुनाती हों।
और हम,
उन पलों में खोए हुए,
सोचते हैं कि
वो बीता हुआ समय
फिर सामने खड़ा है,
साक्षी बनकर।
हैरान हो जाते हैं हम,
क्या ये भाग्य की चाल है?
जो हमें फिर पास ले आई,
तुम्हारी आँखों में छिपी
अनकही चाहतों के साथ।
मिलने पर
किसी बात की ज़रूरत ही कहाँ थी,
न कोई सवाल, न जवाब,
बस एक मौन,
जो सदियों की कहानी कहता था,
और सारी दूरियाँ
गंगा की धारा में घुलकर
हमें पास ले आईं।
क्या ये सितारों का खेल था?
या सिर्फ एक संयोग,
कि चलते चलते
हमने सोचना छोड़ दिया था,
सफ़र में साथ होने का एहसास ही
काफ़ी था।
तो अब यही सही,
न तुम सोचो, न मैं,
न कोई सवाल हो, न जवाब,
बस एक खामोशी हो,
जो हमारे साथ हो,
और हम चलते जाएँ,
इन बीतते पलों को
वक़्त के हवाले करते हुए,
जैसे गंगा का जल
सदा बहता रहता है...