नई सुबह जब रक्त-रश्मि चूनर ताने आई,
नींद की परतें चीर, जागरण की बात सुनाई।
अम्बर ने अंगड़ाई ली, नभ ने नवल पुकारा,
कण-कण में चेतनता का मंगल गीत उतारा।
धूप-दर्पण बन चली, तम का तमस मिटाया,
छाया-संघर्ष ने फिर साहस से हाथ मिलाया।
हर किरण बनी रणभेरी, आशा की पताका,
संकल्पों का संग्राम, बना फिर विजयी राका।
पत्थर-पथ पर भी उगती फूलों की हँसी थी,
दर्द-विजय की द्वंद्व गाथा, हृदयों में बसी थी।
“जलजन्मी-ज्योतिस्वरूपा”—वह बहुव्रीहि संज्ञा,
जो हर नव-पथ में भरती, धैर्यधरा की गूंजा।
चेतना का तत्पुरुष मंत्र—“थकना मना है रे!”,
हर चुनौती कहती है—“तू रुकना मना है रे!”
अवरोधों के यमक रूप—भूल और भूलभुलैया,
सत्य-प्रयास की मणियों से, हर असफलता छ्लैया।
प्रेरणा के पंख लगे जब कर्मठ इच्छाओं को,
सफलता ने मस्तक चूमा नयी प्रबल भावनाओं को।
नई सुबह — न केवल रश्मियों की दुलारी,
वह तो है रणभूमि की नवसंध्या की तयारी।
----देवांशी पटेल