तुम दिनभर दुनिया का हिसाब लिखते हो,
किसने क्या कहा, किसने क्या किया,
पर अपने बारे में एक शब्द नहीं लिखते।
तुम्हारी डायरी में तुम्हारे डर का ज़िक्र नहीं,
तुम्हारे गुस्से का पता नहीं,
तुम्हारी नींदें क्यों टूटीं — उसका कोई बयान नहीं।
तुम सच में लिखते हो?
नहीं।
तुम बस वो लिखते हो जो दूसरों को अच्छा लगे।
एक बार कोशिश करो —
अपना सच लिखने की।
वो भी बिना सजावट, बिना पर्दा, बिना बहाना।
लिखो — कब तुम झूठ बोले।
लिखो — कब तुमने किसी को इस्तेमाल किया।
लिखो — कब तुम डर के कारण चुप रहे।
और फिर पढ़ो…
अगर पढ़ते वक्त दिल नहीं कांपा,
तो समझना — या तो तुमने सच नहीं लिखा,
या तुम अब इंसान नहीं बचे।
तुम्हें डर है कि लोग तुम्हारा सच जान लेंगे।
पर सच्चाई ये है —
तुम्हें डर खुद से है,
क्योंकि अगर तुमने अपना सच देख लिया,
तो अपने ही चेहरे से नज़र नहीं मिला पाओगे।
तुम्हें लगता है, सच लिखना आसान है?
नहीं।
सच लिखना मतलब —
अपनी इज्ज़त, अपने बहाने, अपने गर्व को
एक-एक कर के उतार फेंकना।
और फिर देखना —
तुम्हारे पास बचा क्या?
कुछ टूटे रिश्ते,
कुछ अधूरे वादे,
और वो इंसान जो तुमने बनने की कसम खाई थी…
पर कभी बने ही नहीं।
अपना सच पढ़ो —
ताकि तुम्हें पता चले,
कि असल में तुम्हें बदलने की ज़रूरत कहाँ है,
और किस चीज़ को तुम सालों से बस टाल रहे हो।