वक्त बदल रहें है
जज़्बात बदल रहे हैं
साल दर साल पहर दर पहर
शहर दर शहर कैलेंडर बदल रहें हैं
पर हैं ये आदमी ना जाने क्यों नहीं बदल रहें हैं..
वही पुरानी बातें
उल्टी सीधी बरसाते
लूट खसोट भ्रष्टाचार
न लोक लाज न बात व्यवहार
पढ़ा लिखा सब बेकार
वही मानसिकता एक दम बेकार
गलती पर गलती बनता होशियार
वही घट वही व्यापार
दामों खुद को क्यों नहीं बदलता है
कुछ नया साल में नया क्यों नहीं करता है
बस फर्स्ट जनवरी को हीं नया साल समझता है और बाकी के 364 दिल वही
पूरी आदतें दोहराता हैं
दशकों से यही चलता आ रहा है
और नया साल हर साल सिर्फ एक जवानी को हीं समझा जा रहा है..
या यूं कहें है ये सिर्फ एक दिन का बवाल
और फिर साल दर साल वही हाल
साल दर साल वही हाल...