गड्ढे ऊंचे ऊंचे तालाब वाले,
जिस पर खड़ा अध मन मानव,
गाड़ी जाकर गिरी उसी में,
उठाने से पहले,
बड़े ध्यान से,
उसको लोगों ने आंख लगा कर देखा,
बचाने कौन जाता,
वीडियो बनाने लगे,
चोट आई है,
कितनी आई है?
गाड़ी का नंबर देखा,
कहां-कहां घाव है,
पुलिस केस है,
उसी भावों के व्यूह में,
उसे एक ही बात याद आती है,
यह शहर की सड़क है,
इसमें एक गड्ढा है,
आगे दो पग के बाद एक ओर गड्ढा है,
यही क्रम योजना अनुसार है,
लोकतंत्र अवरुद्ध है,
शिक्षा है पर अक्षर की पहचान तक,
दल गति भारी है,
विकास पंगु है,
वोट नाम का एक शिकारी है,
अब इस गड्ढे को भरने के लिए मुझे शिक्षा की जरूरत है,
गड्ढे की मरम्मत व्यवस्था क्षणिक है वह भी वोट है,
इस सड़क को मैं अपने घर ले जाऊंगा,
खुद ही इसकी मरम्मत करूंगा,
मैं समाजसेवी बन जाऊंगा,
मैं प्रसिद्ध हो जाऊंगा,
मैं लोगों को जागरूक करूंगा,
मैं नेता बन जाऊंगा,
एक दल का हो जाऊंगा,
फिर शहर की सड़क,
गड्ढा? विकास?
लोकतंत्र! लोकतंत्र!
यह चीखें सुन रहे हो,
जो शायद भर नहीं सकता है,
यह अभिलाषाएं हैं और खुद का अस्तित्व बनाने की लालसा,
मेरे विकास को खोखला बनाता है,
एक से नहीं सबसे होगा,
शहर की सड़क और गांँव के कच्चे रास्ते,
दोनों का संगम लोकतंत्र को जगा सकता है,
मैं दल विरोधी हूं,
मैं शहर की सड़क हूं,
उस पंक्ति से अलग हटकर,
एक शिक्षित समाज के एक मानव ने,
मुझे उठाया और प्राथमिक उपचार दिया,
थोड़ा समाज अभी भी सुरक्षित है,
मगर सिवा इसके शिक्षा का स्तर अभी कम है,
मुझे चोट लगी मगर मैं बता ना पाया,
विकास हो मगर सत्य को जानने के बाद।।
- ललित दाधीच